कुछ इश्क था कुछ मज़बूरी थी

कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी, सो मैंने जीवन वार दिया

मैं कैसा ज़िंदा आदमी था, इक शख़्स ने मुझ को मार दिया


इक सब्ज़ शाख़ गुलाब की थी, इक दुनिया अपने ख़्वाब की थी

वो एक बहार जो आई नहीं, उस के लिए सब कुछ हार दिया


ये सजा-सजाया घर साथी, मेरी ज़ात नहीं, मेरा हाल नहीं

काश कभी तुम जान सको इस सुख ने जो आज़ार दिया


मैं खुली हुई इक सच्चाई, मुझे जानने वाले जानते हैं

मैंने किन लोगों से नफ़रत की, और किन लोगों को प्यार दिया

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