दिल पे जख्म खाते हैं, जान से गुजरते हैं - Dil pe zakhm khate hain
दिल पे जख्म खाते हैं, जान से गुजरते हैं
जुर्म सिर्फ इतना है, उनको प्यार करते हैं
ऐतबार बढ़ता है और भी मुहब्बत का
जब वो अजनबी बनकर पास से गुजरते हैं
उनकी अंजुमन भी है, दार भी रसन भी है
देखना है दीवाने, अब कहाँ ठहरते हैं
उनके इक तगाफुल से टूटते हैं दिल कितने
उनकी इक तवज्जो से कितने जख्म भरते हैं
जो पले हैं ज़ुलमत में, क्या सहर को पहचानें
तीरगी के शैदाई रोशनी से डरते हैं
लाख वो गुरेजां हों, लाख दुशमन ए जां हों
दिल को क्या करें साहिब, हम उन्ही पे मरते हैं
Posted by Raees Khan
Comments
Post a Comment