कभी यूँ मिलें कोई मसलेहत, कोई ख़ौफ़ दिल में ज़रा न हो
गज़ल
कभी यूँ मिलें कोई मसलेहत, कोई ख़ौफ़ दिल में ज़रा न हो
मुझे अपनी कोई ख़बर न हो, तुझे अपना कोई पता न हो
वो ग़ुलाब बन के खिलेगा क्या, जो चिराग़ बन के जला न हो
कभी धूप दे, कभी बदलियाँ, दिलो-जाँ से दोनों क़ुबूल हैं
मगर उस नगर में न क़ैद कर, जहाँ ज़िन्दगी की हवा न हो
वो हज़ारों बाग़ों का बाग़ हो, तेरी बरक़तों की बहार से
जहाँ कोई शाख़ हरी न हो, जहाँ कोई फूल खिला न हो
तेरे इख़्तियार में क्या नहीं, मुझे इस तरह से नवाज़ दे
यूँ दुआयें मेरी क़ुबूल हों, मेरे दिल में कोई दुआ न हो
कभी हम भी जिस के क़रीब थे, दिलो-जाँ से बढ़कर अज़ीज़ थे
मगर आज ऐसे मिला है वो, कभी पहले जैसे मिला न हो
Posted by Raees Khan
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